देवभूमि में देवी के कई सिद्धपीठ हैं, और श्रीनगर गढ़वाल के पास देवलगढ़ में एक सिद्धपीठ राजराजेश्वरी का मंदिर है। जो गढ़वाल राजवंश व उनसे संबंधित लोगों की कुलदेवी कही जाने वाली राजराजेश्वरी किसी मंदिर में नहीं बल्कि घर में निवास करती है। जिसमे 10 सितम्बर 1981 से अखण्ड ज्योति जलती आ रही है,
तीन मंजिला घर में राजराजेश्वरी देवी निवास करती है वर्तमान में उसे ही सिद्धपीठ राजराजेश्वरी मंदिर के नाम से जाना जाता है। *मां राजराजेश्वरी को मोक्ष, वैभव, धन व योग की देवी कहा जाता है। यहां आज भी मूल स्थान पर उन्नत श्रीयंत्र विद्यमान* है।
प्राचीन सिद्धपीठ राजराजेश्वरी मंदिर में अमावस की रात को विशेष हवन के साथ प्राचीन परंपरानुसार नवरात्रि पूजा प्रारंभ हो चुकी है।
मंदिर के पुजारी कुंजिका प्रसाद उनियाल ने बताया कि नवरात्रि के पहले दिन शुभ घड़ी में मां राजराजेश्वरी, महिषासुर मर्दिनी व त्रिपुर सुंदरी की डोलियों को उन्नत श्रीयंत्र, महिषमर्दनी यंत्र व कामेश्वरी यंत्र विशेष श्रृंगार सहित तिमंजिले भवन के दूसरे मंजिल के विशेष कक्ष में विराजमान किया गया।
इसके उपरांत यहां 10 महाविद्याओं के नाम से हरियाली बोई जाती है। परंपानुसार देवी भगवती को नए झंडे चढ़ाए जाते हैं। पुजारी कुंजिका प्रसाद उनियाल ने बताया कि जौ की हरियाली को प्रकृति स्वरूपा महामाया मानते हुए पूजन किया जाता है। नवरात्रि के समय दिन के साथ हर रात मंदिर प्रांगण में हवन किया जाता है।
कहा कि विजयादशमी के दिन माता को ऊपरी मंजिल के विशेष कक्ष में स्थापित करने व यज्ञ के बाद दस महाविद्याओं के नाम की हरियाली को प्रसाद स्वरूप बांटने की प्राचीन परंपरा आज भी यथावत है।
*यह मान्यता है*
बताया जाता है कि सन् 1948 ई० तक *नवरात्रि की विशेष पूजा व अनुष्ठान की सारी व्यवस्थाएं नौटियाल राजगुरु* करते थे और कोठी के *अंदर की पूजा में पोखरी के बहुगुणा, मासों के डंगवाल ज्योतिषाचार्यों व श्रीविद्या उपासकों का बड़ा योगदान रहता था*। *1949 में टिहरी स्टेट के भारत सरकार में विलीनीकरण के बाद प्रत्येक वर्ष होने वाली महापूजा की परंपरा समाप्त होने लगी, जिसके कारण कई पंडित व यजमान परिवार सिद्धपीठ से दूर हो गए। तब उनियाल पुजारी परिवार ने विशेष पूजा परंपरा को यथावत बनाए रखा गया*।
*ऐसे पहुँचे मंदिर तक*
सिद्धपीठ राजराजेश्वरी मंदिर श्रीनगर से 18 किमी की दूरी पर देवलगढ़ में स्थित है। देवलगढ़ तक निजी या सवारी वाहन से पहुंचा जा सकता है। इसके बाद सड़क से तकरीबन 250 मीटर की चढ़ाई चढ़ने पर राजराजेश्वरी मंदिर मौजूद है। राजराजेश्वरी मंदिर से पूर्व गौरा देवी मंदिर के दर्शन भी भक्तों को होते हैं। यहां अन्य कई छोटे-बड़े मंदिर देखने को मिलते हैं।
उनियाल इस सिद्धपीठ के परंपरागत पुजारी हैं। वर्ष 1512 में त्रिपुर महासुंदरी के नाम से देवलगढ़ में तीन मंजिला भवन का निर्माण कराया गया। यहां राजा अजयपाल ने देवी राजराजेश्वरी को स्थापित किया।
विशेष श्रृंगार सहित तिमंजिले भवन के दूसरे मंजिल के विशेष कक्ष में विराजमान किया गया।
इसके उपरांत यहां 10 महाविद्याओं के नाम से हरियाली बोई जाती है। परंपानुसार देवी भगवती को नए झंडे चढ़ाए जाते
हैं। पुजारी कुंजिका प्रसाद उनियाल ने बताया कि जौ की हरियाली को प्रकृति स्वरूपा महामाया मानते हुए पूजन किया जाता है। नवरात्रि के समय दिन के साथ हर रात मंदिर प्रांगण में हवन किया जाता है।
कहा कि विजयादशमी के दिन माता को ऊपरी मंजिल के विशेष कक्ष में स्थापित करने व यज्ञ के बाद दस महाविद्याओं के नाम की हरियाली को प्रसाद स्वरूप बांटने की प्राचीन परंपरा आज भी यथावत है।
*विदेशों में भी प्रसाद की डिमांड*
पंडित कुंजिका प्रसाद उनियाल बताते है कि पोस्ट ऑफिस के जरिए हवन-यज्ञ की बबूत (राख) विदेशों में भेजी जाती है। कहा कि जब विदेशों से लोग गांव आते है, तो मंदिर के दर्शनों के लिए जरूर पहुंचते है। कहा कि मंदिर में पहुंचने के बाद लोग राख के रूप में अपने पास ले जाते है। यहीं नहीं अन्य लोगों तक भी पहुंचाते है। उन्होंने कहा कि क्षेत्र के कई लोग सऊदी अरब, ऑस्टेलिया, लंदन, अमेरिका में है, जो पोस्ट आफिस के जरिए राजराजेश्वरी मंदिर के हवन की राख मंगवाते है।
*गढ़वाल नरेश रहे अजयपाल ने चांदपुर गढ़ी से राजधानी परिवर्तन कर देवलगढ़ को राजधानी बनाया था* तथा चांदपुर से श्रीयंत्र लाकर तिमंजिला भवन बनाकर उसमें श्रीयंत्र, श्री महिषमर्दिनी यंत्र एवं कामेश्वरी यंत्र की राजराजेश्वरी मंदिर की सन् 1512 में स्थापना की थी। राजराजेश्वरी मंदिर की प्रमुख विशेषता है, कि वह मंदिर में नहीं रहती है, इसलिए मंदिर की मूर्ति व यंत्र भवन में रखे गये है। यहां नित्य विशेष पूजा, पाठ, हवन परंपरा के अनुसार होता है। प्रथम नवरात्र से यंत्रों की पूजा-अर्चना के साथ नौ दिनों तक चलने वाली नवरात्र के लिए हरियाली प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।